....वरना क्या होगा ? तुम जानो .
जनतंत्र में 'जन की शक्ति' से ही 'तंत्र का अस्तित्व' है . जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार को जनता के हित में निर्णय लेने होते हैं. विडम्बना यह है कि 'जनता की - जनता द्वारा - जनता के लिए' गठित सरकार जब अपने आपको जनता से ही ऊपर समझने लगती है तब स्थितियां गडबडाने लगती हैं. " हम सरकार हैं और आप सरकार के रहमोंकरम पर पलने वाली जनता हैं." किसी भी सरकार के लिए यही सोच आत्मघाती है . जनता के हितों के स्थान पर अपने हित में या येन केन प्रकारेण अपनी सरकार चलाते रहने के लिए किये जाने वाले निर्णयों पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं . ब्रिटिश हुकूमत के खात्मे के बाद देश की आज़ादी का सड़सठ वर्षों का कालखंड जनभावनाओं का दमन ,कुशासन , विदेशी घुसपैठ ,भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अनेक सरकारों के गर्भपात का साक्षी रहा है . केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार से लेकर गुजरात की चिमन भाई पटेल सरकार , बिहार की अब्दुल गफूर सरकार , असम की हितेश्वर सैकिया सरकार , तमिलनाडु में जय ललिता सरकार ,आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव सरकार , यू पी में मायावती सरकार और अभी अभी दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के पतन के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं . मगर इनसे सबक लेना तो दूर - कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता इन्हें याद तक नहीं रखना चाहता . आजकल टी वी पर हो रही तमाम बहस या परिचर्चाओं में देखिये - सिर्फ एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और विषवमन तक में ही सारा समय समाप्त हो जाता है . जहर की खेती करने वाला , चाय बेचने वाला ,उल्लू बनाने वाला , शहजादा ,नानी याद दिला देंगे, मुंह पर थूक देंगे ,पागल मुख्यमंत्री, अराजक भीड़ आदि अनेक वाक्य रोज गढ़े और बोले जा रहे हैं .इन बहसों मे भाग लेने के लिए पार्टी के प्रवक्ता प्रतिनिधि की योग्यता अब बुद्धि के स्थान पर फेफड़ों की ताकत बन गयी है . समय निर्धारित होने के बावजूद पार्टी प्रवक्ता पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने से अधिक इस बात के चक्कर में अधिक रहते हैं कि अन्य प्रवक्ता जब अपना पक्ष रख रहे हों तो इतना चिल्लाओ कि कोई उनकी पूरी बात सुन ही न सके .चर्चा का संचालक टीवी एंकर तो बेचारा बीच बचाव ही करने में पस्त हो जाता है .हमारे मित्र प्रसिद्ध टीवी पत्रकार श्री पुण्यप्रसून वाजपेई को कभी मैनें टीवी परिचर्चाओं में इतना युद्धरत और हताहत नहीं देखा था जितना आजकल देख रहा हूँ . एक अन्य टीवी पत्रकार आशुतोष जी तो इन राजनीतिज्ञों की कुकुरझौंझौं से इतने हताश हो गए कि नौकरी छोड़ कर खुद नेता बन गए . आओ बच्चू - अब आओ सामने - एक एक को देख लूँगा . यू पी के एक बहुचर्चित कैबिनेट मंत्री हैं जो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के सामने अपना यह तकिया कलाम दोहराते रहते हैं " आई एम पब्लिक ऐंड यू आर पब्लिक सर्वेंट. " अब यह बात दीगर है कि उनका "आई एम पब्लिक " का यह बोधज्ञान पब्लिक प्रापर्टी ( ग्राम सभा की ज़मीन) हड़पने की कोशिश तक चला जाता है . राजनीति के इस विषव्यापी दौर में कोई मुख्यमंत्री जनता से जुड़े किसी मुद्दे पर अगर यह कह रहा है कि " हम सरकार बनाने और बचाने के लिए चुनाव लड़ कर यहाँ तक नहीं आये हैं . अगर जरूरत पड़ी तो हम इस्तीफ़ा दे देंगे ." तो वर्तमान राजनीति में यह बदला हुआ स्वर - यह तेवर भ्रष्ट राजनीति की वेगवती धारा के विपरीत उठ खड़े होने का एक सार्थक प्रयास है .केजरीवाल ने तो पहले ही कहा है कि "भाजपा और कांग्रेस ने आज तक राजनीति नहीं बल्कि सत्ता की दलाली की है . इनको राजनीति करना अब हम सिखायेंगे."आज साफ़ साफ़ दिख रहा है कि एक दूसरे को सड़सठ साल तक लतियाने , गरियाने और अंगुरी चमकाने वाली दो विपरीत राजनीतिक विचार धाराएँ केजरीवाल का नाम आते ही किस तरह आपस में गलबहियां डाल कर एकस्वर में केजरीवाल के खिलाफ पों पों करने लग रही है .
कानून बनाने का अधिकार सार्वजनिक हित में कानून बनाने के लिए होता है, किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं . जनता के बहुमत से चुने गए विधायक और उनके बहुमत से बनी दिल्ली की केजरीवाल सरकार को दिल्लीवासियों के हित में कानून बनाने से रोकने वाला केंद्र सरकार का कानून इंदिरा गाँधी के बयालीसवां कानून संशोधन जैसा ही कानून है जिसे आज केजरीवाल खुल कर चुनौती दे रहे हैं .
यहाँ जनकवि देवेन्द्र आर्य की पंक्तियाँ संदर्भित करना चाहूँगा :
"फिर जांचो परखो अपने हथियारों को/ फिर से अपना खून-पसीना छानो/ वरना क्या होगा तुम जानो.# चुप्पी को हथियार बनाये , ओढ़े धूम-धड़ाका /पारीपारा लुट गए सारे ,बाल हुआ न बांका /चूक हुई है हम दोनों से /मानो या ना मानो ."
जनतंत्र में 'जन की शक्ति' से ही 'तंत्र का अस्तित्व' है . जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार को जनता के हित में निर्णय लेने होते हैं. विडम्बना यह है कि 'जनता की - जनता द्वारा - जनता के लिए' गठित सरकार जब अपने आपको जनता से ही ऊपर समझने लगती है तब स्थितियां गडबडाने लगती हैं. " हम सरकार हैं और आप सरकार के रहमोंकरम पर पलने वाली जनता हैं." किसी भी सरकार के लिए यही सोच आत्मघाती है . जनता के हितों के स्थान पर अपने हित में या येन केन प्रकारेण अपनी सरकार चलाते रहने के लिए किये जाने वाले निर्णयों पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं . ब्रिटिश हुकूमत के खात्मे के बाद देश की आज़ादी का सड़सठ वर्षों का कालखंड जनभावनाओं का दमन ,कुशासन , विदेशी घुसपैठ ,भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अनेक सरकारों के गर्भपात का साक्षी रहा है . केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार से लेकर गुजरात की चिमन भाई पटेल सरकार , बिहार की अब्दुल गफूर सरकार , असम की हितेश्वर सैकिया सरकार , तमिलनाडु में जय ललिता सरकार ,आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव सरकार , यू पी में मायावती सरकार और अभी अभी दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के पतन के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं . मगर इनसे सबक लेना तो दूर - कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता इन्हें याद तक नहीं रखना चाहता . आजकल टी वी पर हो रही तमाम बहस या परिचर्चाओं में देखिये - सिर्फ एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और विषवमन तक में ही सारा समय समाप्त हो जाता है . जहर की खेती करने वाला , चाय बेचने वाला ,उल्लू बनाने वाला , शहजादा ,नानी याद दिला देंगे, मुंह पर थूक देंगे ,पागल मुख्यमंत्री, अराजक भीड़ आदि अनेक वाक्य रोज गढ़े और बोले जा रहे हैं .इन बहसों मे भाग लेने के लिए पार्टी के प्रवक्ता प्रतिनिधि की योग्यता अब बुद्धि के स्थान पर फेफड़ों की ताकत बन गयी है . समय निर्धारित होने के बावजूद पार्टी प्रवक्ता पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने से अधिक इस बात के चक्कर में अधिक रहते हैं कि अन्य प्रवक्ता जब अपना पक्ष रख रहे हों तो इतना चिल्लाओ कि कोई उनकी पूरी बात सुन ही न सके .चर्चा का संचालक टीवी एंकर तो बेचारा बीच बचाव ही करने में पस्त हो जाता है .हमारे मित्र प्रसिद्ध टीवी पत्रकार श्री पुण्यप्रसून वाजपेई को कभी मैनें टीवी परिचर्चाओं में इतना युद्धरत और हताहत नहीं देखा था जितना आजकल देख रहा हूँ . एक अन्य टीवी पत्रकार आशुतोष जी तो इन राजनीतिज्ञों की कुकुरझौंझौं से इतने हताश हो गए कि नौकरी छोड़ कर खुद नेता बन गए . आओ बच्चू - अब आओ सामने - एक एक को देख लूँगा . यू पी के एक बहुचर्चित कैबिनेट मंत्री हैं जो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के सामने अपना यह तकिया कलाम दोहराते रहते हैं " आई एम पब्लिक ऐंड यू आर पब्लिक सर्वेंट. " अब यह बात दीगर है कि उनका "आई एम पब्लिक " का यह बोधज्ञान पब्लिक प्रापर्टी ( ग्राम सभा की ज़मीन) हड़पने की कोशिश तक चला जाता है . राजनीति के इस विषव्यापी दौर में कोई मुख्यमंत्री जनता से जुड़े किसी मुद्दे पर अगर यह कह रहा है कि " हम सरकार बनाने और बचाने के लिए चुनाव लड़ कर यहाँ तक नहीं आये हैं . अगर जरूरत पड़ी तो हम इस्तीफ़ा दे देंगे ." तो वर्तमान राजनीति में यह बदला हुआ स्वर - यह तेवर भ्रष्ट राजनीति की वेगवती धारा के विपरीत उठ खड़े होने का एक सार्थक प्रयास है .केजरीवाल ने तो पहले ही कहा है कि "भाजपा और कांग्रेस ने आज तक राजनीति नहीं बल्कि सत्ता की दलाली की है . इनको राजनीति करना अब हम सिखायेंगे."आज साफ़ साफ़ दिख रहा है कि एक दूसरे को सड़सठ साल तक लतियाने , गरियाने और अंगुरी चमकाने वाली दो विपरीत राजनीतिक विचार धाराएँ केजरीवाल का नाम आते ही किस तरह आपस में गलबहियां डाल कर एकस्वर में केजरीवाल के खिलाफ पों पों करने लग रही है .
कानून बनाने का अधिकार सार्वजनिक हित में कानून बनाने के लिए होता है, किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं . जनता के बहुमत से चुने गए विधायक और उनके बहुमत से बनी दिल्ली की केजरीवाल सरकार को दिल्लीवासियों के हित में कानून बनाने से रोकने वाला केंद्र सरकार का कानून इंदिरा गाँधी के बयालीसवां कानून संशोधन जैसा ही कानून है जिसे आज केजरीवाल खुल कर चुनौती दे रहे हैं .
यहाँ जनकवि देवेन्द्र आर्य की पंक्तियाँ संदर्भित करना चाहूँगा :
"फिर जांचो परखो अपने हथियारों को/ फिर से अपना खून-पसीना छानो/ वरना क्या होगा तुम जानो.# चुप्पी को हथियार बनाये , ओढ़े धूम-धड़ाका /पारीपारा लुट गए सारे ,बाल हुआ न बांका /चूक हुई है हम दोनों से /मानो या ना मानो ."